सामा-चकेबा एकमात्र मिथिला में मनाया जाने वाला लोक पर्व है. यह पर्व मिथिला की संस्कृति से जुड़े होने के साथ ही इसकी पौराणिक मान्यता भी है. बहनो द्वारा भाई के लिए मनाया जाने वाले इस त्यौहार का शुभारम्भ कार्तिक शुक्ल सप्तमी, छठ के पारण यानि सुबह के अर्घ के दिन होता है और पूर्णिमा को इसका समापन होता है . भाई बहनों के प्रेम के प्रतीक स्वरुप यह पर्व मनाया जाता है. कहते हैं पूर्णिमा के दिन सामा अपने ससुराल चली जाती है.
पुराण के अनुसार कृष्ण की बेटी का नाम श्यामा (सामा) और बेटे का नाम साम्ब था, साम्ब को बचपन से ही अपनी बहन सामा से बहुत प्रेम था . सामा के पति का नाम चारुवक्त्र (चकेबा) था. चकेवा भी अपनी पत्नी सामा से बहुत प्रेम करते थे . सामा को प्रकृति से बहुत स्नेह था . वह सुबह उठकर प्रकृति प्रेमवश वृन्दावन चली जाती और दिनभर पेड़, पौधे, पक्षियों और प्रकृति के बीच वन में विचरण करती, वह दिन भर सातों ऋषियों (सत भैया ) के बीच खेलती कथा-पुराण सुन वापस आ जाती। कृष्ण के राज्य में चूड़क (चुगला) नामक एक मंत्री था उसने सामा के पिता से नमक मिर्च लगा सामा के बारे में चुगली कर दी और सामा पर लांछन भी लगा दिया। सामा के पिता ने क्रोध में आकर सामा और सातों ऋषियों को पक्षी रूप का श्राप दे दिया . चकेबा अपनी पत्नी से बहुत प्रेम करते थे वे शिव जी की तपस्या करने लगे और प्रसन्न हो शिव ने वरदान मांगने को कहा तो पक्षी रूप का वरदान मांग लिया और पत्नी वियोग में वनों में भटकते रहते . साम्ब बाहर गए हुए थे बाहर से आने के बाद जब उन्हें इस बात का पता चला तो वह कृष्ण को मनाने की कोशिश करने लगे और न मानने पर तपस्या कर उन्हें मनाने में कामयाब हुए. सामा और सातों ऋषियों को श्राप मुक्त करवाया. कृष्ण ने साम्ब को वचन दिया कि हर साल कार्तिक शुक्ल सप्तमी को सामा आएगी और पूर्णिमा के दिन वापस लौट जाएगी . इसप्रकार सामा चकेबा का मिलन कार्तिक मास में होता है .
इसी कथा के मान्यता के आधार पर बहने छठ के पारण के दिन मिटटी के सामा, चकेबा, चुगला, वृन्दावन, बाटो-बहिन, सतभैया, इत्यादि की मूर्ती बनाकर रोज शाम में खेत या मंदिर के पास जाकर खेलती हैं. प्रतिदिन प्रतीक स्वरुप मिटटी के बनाये गए वृन्दावन जिसमे खढ लगा होता है उसे थोड़ा थोड़ा रोज जलाई जाती है. चुगला जिसके मुंह में पाट(पटुआ) लगा होता है उसे भी आग लगाकर जलाई जाती है उसे मोटे मोटे काजल लगा हंसी का पात्र बनाया जाता है.
वृन्दावन में आग लगाते समय बहने गातीं हैं :
वृन्दावन में आग लागल कियो नहि मिझाबय हे
हमर भैया बड़का भैया दौड़ दौड़ मिझाबय हे
चुगला को जलाते समय बहने गातीं हैं :
चुगला करे चुगली बिलाड़ि करे म्याऊँ
आरे चुगला तोरे फांसी दूँ
चाउर चाउर चाउर
भैया कोठी चाउर
छाउर छाउर छाउर
चुगला कोठी छाउर
हंसी ख़ुशी हंसी मजाक के माहौल और वातावरण में मनाया जाने वाले इस पर्व में बहनें भाई की लंबी उम्र और धन धान्य से परिपूर्ण होने की कामना से युक्त
गाने गातीं हैं जिसमे सारे भाई बहनों के नाम होते हैं .
भाई को आशीष देने के लिए बहने गाती हैं :
सामा हे चकेबा हे
जोतला खेत में अबिह हे
ढेला फोड़ि फोड़ि खइह हे
भाई के आशीष दीह हे
भरि घर बहिना सामा खेलाय सामा खेलाय
निरसुख बहिना घुरि घर जाय घुरि घर जाय
गाम के अधिकारी तोहें बड़का भैया हे
तोहें बड़का भैया हे
भैया हाथो दस पोखरि खूना दिय चम्पा फूल लगा दिय हे
भैया लोढायेल भौजी हार गुथु हे आहे सेहो हार पहिरथु बड़की बहिना साम चकेबा खेल करू हे
गाम के अधिकारी ....................................
कथिये बझायब बन तितिर हे
आहे कठिये बझायब राजहंस चकेबा खेलब हे
चाले बझायब बन तितिर हे
आहे रभासि बझायब राजहंस चकेबा खेलब हे
गाम के अधिकारी तोहें .................................
देवउठावन (देवउठनी) एकादशी के दिन सामा के ससुराल जाने का दिन तय होता है उस दिन सारे मूर्तियों पर चावल के पिठार का छींटा दिया जाता है अर्थात सामा के जाने का दिन तय हो गया . उस दिन से सामा के ससुराल जाने की तैयारी शुरू होती है . मिट्टी के पौती बनाते हैं जिसमे चूड़ा, चावल, मिठाई ,कपडे दिए जाते हैं . उस दिन से सारे मूर्तियों को रंग बिरंगे रंगों से रंगे जाते हैं और पूर्णिमा के दिन सारे मूर्तियों को बांस की डाली में लेकर उसमे दिया जलाकर खेत में सारी बहने झुण्ड में जाती हैं पूर्णिमा के दिन भाई का साथ जाना जरूरी होता है. वहां पहुंचकर रोज की तरह सारी मूर्तियों को जमीन पर रख उनमे से चुगला और वृन्दावन को जलाते हुए हंसी मजाक और चुगला को गाली दी जाती है. अंत में भाइयों को मिठाई और नए चूड़े दी जाती है . एक चिड़िया बाटो- बहिना को छोड़ भाई सारे मूर्तियों को अपने घुटने से तोड़ते हैं और उन्हें जुते हुए खेत में विसर्जन कर दी जाती है.
यह पर्व भाई बहनों के प्रेम और भाई के बहन के प्रति अटूट विश्वास का सन्देश देता है.
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ReplyDeleteवाह! बचपन में इस पर्व को बड़े कुतूहल से न केवल देखता था अपितु चुंगला की दाढ़ी में आग लगाने का आनन्द भी लुटता था. लेकिन इसके मनाये जाने का मर्म आज जाना. बहुत आभार और बधाई!
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