"यूँ मुहब्बत कहूँ हो इबादत मगर"
है कठिन फिर भी सच को कहोगे अगर
जिंदगी का सफ़र ना सिफर हो डगर
दिल की बेताबियाँ और ऐसी तड़प
यूँ मुहब्बत कहूँ हो इबादत मगर
आज कहने को जब, तुम नहीं पास में
क्या है उलझन कहूँ जाने सारा नगर
भाग्य रूठे हों तुमसे तो फिर क्या कहें
ये इनायत कहो हमसफ़र हो अगर
सारी खुशियाँ मिले याद आए कुसुम
रूठा कैसे कहूं दूर हो भी मगर
-कुसुम ठाकुर-
भला कैसे सिफर जिन्दगी का सफर
ReplyDeleteजब सुमन और कुसुम चले एक ही डगर
बहुत ही सुन्दर और सार्थक प्रस्तुती आभार ।
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