मगर समर्पण मूल प्रेम का, यह भी तो इकरार करो
प्रेम की सीमा उम्र नहीं है जानो, मत अनजान बनो
भले ह्रदय में द्वन्द के कारण, चाहो तो इज़हार करो
बनो नहीं नादान कभी तुम, समझो सभी इशारों को
और समेटो हर पल खुशियाँ, कभी नहीं तकरार करो
चार दिनों का यह जीवन है,प्रेम फुहारें हों सुरभित
कहीं वेदना अगर विरह की, उस पल को भी प्यार करो
काँटों में रहकर जीने की, कला कुसुम ने सीख लिया
देर हुई है मत कहना फिर, आकर के स्वीकार करो
-कुसुम ठाकुर-
सच कहा नैन बहुत कुछ कह जाते है बस उनकी भाषा पढनी आनी चाहिये…………सुन्दर अभिव्यक्ति।
ReplyDeleteचार दिनों का यह जीवन है,प्रेम फुहारें हों सुरभित कहीं वेदना अगर विरह की, उस पल को भी प्यार करो
ReplyDeleteबहुत सुंदर रचना।
बहुत सुंदर रचना।
ReplyDeleteविवेक जैन vivj2000.blogspot.com
कुसुम जी आज तो अलग ही मिजाज की सुंदर गजल पढने मिली।
ReplyDeleteआभार
कांटों में रहकर जीने की कला कुसुम ने सीख लिया देर हुई है
ReplyDeleteमत कहना फिर ,आकार के स्वीकार करो।
सुन्दर अति सुन्दर बधाई।
चार दिनों का यह जीवन है,प्रेम फुहारें हों सुरभित
ReplyDeleteकहीं वेदना अगर विरह की, उस पल को भी प्यार करो
बहुत सुन्दर भावों से सजी रचना के लिए बधाई |