( कई दिनों से अस्वस्थता के कारण मैं कुछ नहीं लिख पाई हूँ, न ही पढ़ पाई हूँ, पर आज बिना लिखे न रह पाई और कुछ पंक्तियाँ लिख ही डाली )
" होली " दिन हो होली या कि दिवाली ,
रहता था न दिल कभी खाली ।
चटक रंग बसता ह्रदय में ,
उसे उतारूँ कैसे नयनो में ।
देखि ज्यों मैं सरसों पीली ,
याद दिला गई बरसों की होली ।
बसंत बयार न लागता मुझको ,
कूक कोयल भी न भाये अब तो ।
नींद खुली बस आहट पाकर ,
कहा कोई कानों में गाकर ।
फागुन में मैं चातक बनकर ,
आया हूँ सजनी के दर पर ।।
-कुसुम ठाकुर -