Saturday, January 26, 2013

मुझे आज मेरा वतन याद आया !!

( मेरी एक पुरानी कविता, जिसे मैं कुछ बरसों पहले अपने अमेरिका प्रवास के दौरान एक अप्रवासी भारतीय को ध्यान में रखकर लिखी थी। आज मैं अमेरिका में हूँ, अनायास ही यह कविता याद आ गई। )

"मुझे आज मेरा वतन याद आया"

मुझे आज मेरा वतन याद आया।
ख्यालों में तो वह सदा से रहा है ,
 मजबूरियों ने जकड़ यूँ रखा कि,
मुड़कर भी देखूँ तो गिर न पडूँ मैं ,
यही डर मुझे तो सदा काट खाए ।
मुझे आज ......................... ।


छोड़ी तो थी मैं चकाचौंध को देख ,
 मजबूरी अब तो निकल न सकूँ मैं,
करुँ अब मैं क्या मैं तो मझधार में हूँ ,
इधर भी है खाई, उधर मौत का डर ।
मुझे आज ............................... ।


बचाई तो थी टहनियों के लिए मैं ,
है जोड़ना अब कफ़न के लिए भी ।
काश, गज भर जमीं बस मिलता वहीँ पर ,
मुमकिन मगर अब तो वह भी नहीं है ।
मुझे आज ................................ ।


साँसों में तो वह सदा से रहा है ,
मगर ऑंखें बंद हों तो उस जमीं पर।
इतनी कृपा तू करना ऐ भगवन ,
देना जनम  निज वतन की जमीं पर ।
मुझे आज .................................. ।

-कुसुम ठाकुर-

Monday, January 14, 2013

सह सको मुमकिन नहीं.


"सह सको मुमकिन नहीं"

 है नशा ऐसी कहो क्या सह सको मुमकिन नहीं
सो रहे क्यों अब तो जागो सह सको मुमकिन नहीं

हाथ अब कुर्सी जो आई, धुन अरजने की लगी
मृग मरीचिका जो कहें , सह सको मुमकिन नहीं

 सच दिखा सकते मगर आँखें वो मूंदे हैं विवस
बिखर गए सपने अधूरे, सह सको मुमकिन नहीं

कर(टैक्स) पसीने से दिया जो रह गया हो वह ठगा
अपनी मनमानी करे तुम सह सको मुमकिन नहीं

नहीं खून मांगे देश तुमसे बात अपने दिल की सुनो
 बेड़ियों में कुसुम सपना, सह सको मुमकिन नहीं

-कुसुम ठाकुर-